शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

जो खून बहा अल्हूत सनम
वो खून तुम्हारा था तो नही
उस खून को फर्जी दर्ज करे
कानून तुम्हारा था तो नहीं

यह था तो नहीं वह था तो नहीं
कुछ है तो नहीं फ़िर है कैसा
तुम कहते हो सब ऐसा है
मैं कहता हूँ सब है "वैसा"!

2 टिप्‍पणियां:

मुसाफिर बैठा ने कहा…

विद्रोही जी को एक बार पटना स्थित कालिदास रंगालय प्रेक्षागृह में जन संस्कृति मंच एक कार्यक्रम के दौरान कविता पाठ करते देखा है.ओजस्वी काव्य-पथ प्रस्तुत करता हैं.आप उनको मंत्रमुग्ध चुपचाप सुनने को मजबूर होंगे.
एक फटेहाल मजदूर सा बाना और देह्दशा वाले इस शांत से दीखते शख्स के अंदर सामाजिक प्रश्नों की अशेष माला है जो उनके हालिया प्रकाशित काव्य-संग्रह से भी लक्षित है.
यहाँ प्रकाशित रचनाएँ भी मेरी उपर्युक्त बातों की गवाही ही प्रस्तुत करती है.
हाल में जेएनयू कैम्पस स्थित एक बुक स्टॉल से उनका संग्रह वहाँ पढ़ रही बिटिया पुष्पा की मार्फ़त मंगवाया हूँ.वह भी उनकी कविताओं की मुरीद बन बैठी है.
संकोच से यह कहना है कि उनकी पूरी कविताएँ अभी नहीं पढ़ पाया हूँ. उनकी कविताओं पर लिखना भी अपना कर्तव्य समझता हूँ.

मुसाफिर बैठा ने कहा…

विद्रोही जी को एक बार पटना स्थित कालिदास रंगालय प्रेक्षागृह में जन संस्कृति मंच के एक कार्यक्रम के दौरान कविता पाठ करते देखा है.ओजस्वी काव्य-पाठ प्रस्तुत करते हैं वे.आप उनको मंत्रमुग्ध चुपचाप सुनने को मजबूर होंगे.
एक फटेहाल मजदूर सा बाना और देह्दशा वाले इस शांत से दीखते शख्स के अंदर सामाजिक प्रश्नों के प्रति अशेष ?? और आक्रोश हैं जो उनके हालिया प्रकाशित काव्य-संग्रह से भी लक्षित है.
यहाँ प्रकाशित रचनाएँ भी मेरी उपर्युक्त बातों की गवाही ही प्रस्तुत करती है.
हाल में जेएनयू कैम्पस स्थित एक बुक स्टॉल से उनका संग्रह वहाँ पढ़ रही अपनी बिटिया पुष्पा की मार्फ़त मंगवाया हूँ.वह भी उनकी कविताओं की मुरीद बन बैठी है.
संकोच से यह कहना है कि उनकी पूरी कविताएँ अभी नहीं पढ़ पाया हूँ. उनकी कविताओं पर लिखना भी अपना कर्तव्य समझता हूँ.
(संभव हो तो नीलाम्बुज भाई, मेरी पहली टिप्पणी, जिसमें काफी अशुद्धियाँ चली गयी हैं, हटा कर यह लगा दें)