शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

जो खून बहा अल्हूत सनम
वो खून तुम्हारा था तो नही
उस खून को फर्जी दर्ज करे
कानून तुम्हारा था तो नहीं

यह था तो नहीं वह था तो नहीं
कुछ है तो नहीं फ़िर है कैसा
तुम कहते हो सब ऐसा है
मैं कहता हूँ सब है "वैसा"!

रविवार, 20 जुलाई 2008

कविता नहीं कहानी है

कविता नहीं कहानी है
ये दुनिया सबकी नानी है
और नानी के आगे ननिहाल का वर्णन
अच्छा नहीं लगता

मुझे अपने ननिहाल की बड़ी याद आती है
आपको भी आती होगी
एक अँधेरी कोठरी में
एक गोरी सी बूढी औरत
रात दिन चिराग की तरह
जलती रहती है
मेरे जेहन में !
मेरे ख्यालों में
मेरी नानी की तस्वीर
कुछ इस तरह उभरती है
जैसे की बाजरे के बाल पर
गौरैया बैठी हो

और मेरी नानी की आँखें
उमड़ते हुए समंदर सी लहराती हुई
उन आंखों में
आज भी मैं डूब जाता हूँ
आपादमस्तक , आधी रात को दोस्तों!
और उन आंखों के कोर पर
लगा हुआ काजल
लगता था की जैसे
क्षितिज के छोर पर
बादल घुमड़ रहे हों

और मेरी नानी की नाक
नाक नहीं पीसा की मीनार थी
और मुह--
मुह की मत पूछिए
मुह की ज़ोर थी मेरी नानी
और जब चीख कर डांटती थी
तो ज़मीन इंजन की तरह
हांफने लगती थी
जिसकी आग में
आसमान का लोहा तपता था
सूरज की देह गरमाती थी
रात को धुप लगती थी
और दिन को जूडी आती थी

और मेरी नानी का गला
द्वितीया के चंद्रमा की तरह
मेरी नानी का गला
पता ही नहीं चलता था
की हंसली में फंसा है
या हंसली गले में फंसी है
लगता था की जैसे गला, गला नहीं
विधाता ने समंदर में सेतु बाँध दिया हो

और मेरी नानी की देह
देह नहीं आर्मेनिया की गाँठ थी
पामीर के पत्थर की तरह
समतल पीठ वाली मेरी नानी
जब कोई चीज़ उठाने के लिए
झुकती थी ज़मीं पर
तो लगता था की
बाल्कन झील में
काकेशश की पड़ी झुक गई हो

बिल्कुल एस्किमो बालक की तरह
लगती थी मेरी नानी
और जब सर पर
दही का मटका लिए
मेरे पुरखों का भविष्य लिए
घर से निकलती थी मेरी नानी
तो लगता था जैसे
हिमालय से गंगा निकल रही हो


एक आदिम निरंतरता
अनादी से अनंत की ओर उन्मुख
और मेरा जी कहे की मैं पूछूं
की ओ रे बुदिया तू क्या है?
आदमी या आदमी का पेड़?
पेड़ थी दोस्तों !
मेरी नानी आदमियत की,
जिसका मैं एक पत्ता हूँ




मैं सोचता हू

मेरी नानी मरी नहीं

हैवह मोहन्जोद्रो के तालाब

में स्नान करने गई

हैऔर उसकी आखिरी सीढ़ी

परअपनी धोती सुखा रही है
उसकी  कुंजी वहीँ कहीं खो गई है
और वह बड़ी बेसब्री से उसे खोज रही है
मैं पाता हूँकि मेरी नानी हिमालय पर मूंग दल रही है
और अपनी बछिया को एवरेस्ट के खूंटे से बांधे हुए है
मैं ख़ुशी मे तालियाँ बजाना चाहता हूँ
लेकिन मेरी हथेलियों परसरसों उग आई है
मैं अपनी नानी को बुलाना चाहता हूँ
पर मेरे होंटों पर दही जम गई है
मैं पाता हू कि मेरी नानी दही कि नदी में बही जा रही है
मैं उसे पकड़ना चाहता हूँ
 लेकिन  पकड़ नहीं पाता
मैं उसे बुलाना चाहता हूँ
पर बुला नहीं पाता
और मेरी देह
 मेरी समूची देह
टूटे हुए पत्ते की  तरह थर थर कांपने लगती है
जो अब गिरा तब गिरा
 अब गिरा तब गिरा !